तैमूर-Timur-Lang-Langda Tyagi और नाम में क्या रक्खा है?

लंगड़ा त्यागी ने अपने लड़के का नाम तैमूर रखा है। इस से ट्विट्टर वालों का मुंह फूल गया है। गुस्से की वजह है – तैमूर का मतलब होता है लोहा। कोई अपने बच्चे का नाम लोहा कैसे रख सकता है? लोहा अली खान पटौडी – कैसा अटपट नाम रख दिया है! जब चाँदी, सोना जैसे नाम उपलब्ध थे, तो ये लोहा क्या सोच कर रख दिया ?

खैर छोड़िये, तकलीफ सिर्फ इस बात की है कि नाम का मतलब तो सबने समझ लिया पर किसी ने तैमूर लंग को याद नहीं किया। ऐसा भी तो हो सकता है कि सैफ को वो तानाशाह इतने पसंद हैं कि बेटे को भी कुछ उसी मुकाम पर देखना चाहते हों! क्यों? नहीं हो सकता है? हाँ, पर ट्विटर नागरिकों को ये बात कौन समझाए?

अब नामों की बात चली है तो नामों की ही बात करते हैं। मेरे भाई की क्लास में एक बच्चे का नाम था सद्दाम हुसैन। न न, रुकिए। इस से पहले की आप उसके माँ बाप को इराक भेज दें, मैं बता दूं कि जब इस सद्दाम का जन्म हुआ था तब इराक में जैविक या बायोलॉजिकल अस्त्र बनने शुरू नहीं हुए थे। हाँ, मगर आप ये कहते हैं कि जब अमरीका ने हम सबको सूचना दे दी कि ऐसे अस्त्र वहाँ मिल रहे हैं, तो इस सद्दाम के अब्बाजी को बच्चे का नाम बदल देना चाहिए था। जॉर्ज बुश अच्छा नाम होता।

नाम का खेल बहुत गहरा होता है। मेरे पड़ोस के मोहल्ले में एक अंकल ने अपने चार बच्चों का नाम – बनावन राम, बसावन राम, बिगारन राम और घिनावन राम रख दिया। सृष्टि, स्थिति, और प्रलय तीनो विभाग अपने परिवार में ही रख लिए। जैसे आज ट्विटर हँसता है, तब मोहल्ले हँसा करते थे। सो हमारे मोहल्ले ने ठहाके लगाए। बनावन राम और बसावन की शादी हो गयी है । बिगारन और घिनावन के लिए कोई बिगड़ी रानी और घिनौनी नारी मिले तो मुझे बताइएगा।

हमारे दूधवाले का नाम दुखलाल था। ये हमेशा दुःख में लाल पीला होता था। एक दिन वो काफी दुखी हो गया। फिर उसके दोस्त टोनी ने उसे अपना नाम बदलने को कहा। अब उसका नाम सुखलाल हो गया है। अब वो हमेशा खुश रहता है। मेरा बचपन बोकारो जिला के अंतर्गत कथारा नामक स्थान में गुज़रा। जगह बहुत विकसित नहीं है। कोलफील्ड है, जन्म से पहले ही बच्चे काले हो जाते हैं। जगह की दुर्दशा देखकर कुछ सड़कछाप दार्शनिकों ने नाम को बदलकर खटारा रख दिया। नाम बदलते ही हालात बद से बदतर हो गए और गुमला जिले ने कथारा पर परमाणु बम गिरा दिया।

डाकू मंगल सिंह का नाम बड़े अरमानों के साथ मंगल रखा गया। अपने नाम से प्रभावित होकर उसने लोगों में इतना धन बाँटा कि अब उसका नाम लोग दानवीर कर्ण रखने की सोच रहे हैं। इसी प्रकार शत्रुघ्न सिन्हा भाजपा के रामायण में आदतन अदृश्य हैं। अरविन्द केजरीवाल महर्षि अरविन्द घोष की अपूर्ण राजनैतिक यात्रा को पूरा करने आये हैं। कपिल सिबल ज़ीरो लॉस का सांख्य देने वाले महर्षि कपिल हैं, भाजपा के एम.जे. अकबर बाबरी मस्जिद का बदला लेने आये पोते हैं, अखिलेश यादव अयोध्या मसले का हल निकालने दोबारा जन्मे भगवान राम हैं, राहुल गांधी गौतम बुद्ध के लड़के हैं और नरेंद्र मोदी स्वयं स्वामी विवेकानंद हैं।

विजय माल्या बैकों पर विजय प्राप्त कर अपने देश से आज़ाद हो गए हैं, और मेक इन इंडिया को आईसिस वालों ने सही समझ लिया है। ५०० और १००० के दानवटाइज़ेशन में रिज़र्व बैंक हर रोज़ अपने रिज़र्व होने का एक नया प्रमाण दे रहा है और ऑटोमेटेड टेलर मशीन से आटोमेटिक पैसे निकल रहे हैं। वहीँ काले धन ने फेयर एंड लवली स्कीम को ठुकरा दिया है।

आप भी सोच रहे होंगे कि इस लड़के ने पी रक्खी है क्या! इतनी रात गए क्या बकवास कर रहा है। नहीं, मेरा नाम अभिषेक है। मैं पीता नहीं हूँ। मैं सुबह से शाम तक मंदिर में बैठकर नारायण मूर्ति को तिलक लगाता हूँ। वैसे ट्विटर वालों ने ऐसा हंगामा मेरे नामकरण के वक़्त किया होता तो आज हर चौराहे पर एक अभिषेक माथे पर तिलक लगा कर खड़ा न मिलता। अमिताभ बच्चन के बेटे का नाम भी शायद अभिनय बच्चन होता।

#लोल।

The problems of Vishu Mishra!

Vishu Mishra is out in the world with his second book, named as Beauty, Youth & A Beautiful Mind: An insight into the urban blights of our age. A short, swift read that this book is, I couldn’t take my eyes off until the last drop of words had been assimilated. However, this book is not a fiction, the swiftness is the high point of the narrator and not necessarily the subject’s. The subject matter runs risks of getting prosy-dry and preachy-wry if not dealt deftly. To mull on some of the most in-our-face problems of present times powered with his skills of a master storyteller is what the author does Continue reading “The problems of Vishu Mishra!”

The Hindu! Take a bow!

Positivity! Where art thou? Hope! Where art thou?

The country is debating Mr. Aamir Khan’s statements at ‘Ramnath Goenka Awards for Excellence in Journalism’. Irrespective of our political leanings, I am sure most of us would agree with at least one part of his statement where he says something to the effect of – “We are afraid to open the newspapers every day”  Indeed, we are!   Continue reading “The Hindu! Take a bow!”