Crime Vs. Politics

अपराध बनाम राजनीति।

अपराध क्या है? राजनीति क्या है? क्या दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं, या फिर पूरक हैं? अपराध के बिना राजनीति के क्या मायने हैं और राजनीति की अनुपस्थिति में अपराध के क्या मायने हैं? इन बातों पर सोच रहा हूँ। सुबह का समय है। बेंगलूर का मौसम अभी बेतुका सा है। वो जो बच्चा होता है घर में, जिसे किसी ने बताया नहीं कि मेहमान के आने पर क्या करना होता है, मौसम का हाल अभी कुछ वैसा ही है। बारिश हो रही है और नहीं भी। हैइसेंबर्ग साहब को यह मौसम ज़रूर भाता।

हैइसेंबर्ग साहब की बात चली है तो उनको अपराध और राजनीति के पहलू पर भी तौल कर ही विदा करते हैं। ऐसा लगता है जैसे अगर आपने अपराध पर उंगली रख दी और कहा कि ये अपराध है, तो शायद आप राजनीति को कभी न समझ पाएँ और अगर राजनीति पर हाथ रख कर कह दिया कि यही राजनीति है तो शायद कभी अपराध न समझ पाएँ। प्रतिसाल रेलवे दुर्घटनाओं में हज़ारों लोग वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं, वीरगति इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ये लोग जो ऐसी दुर्घटनाओं के बारे में सुनकर-पढ़कर भी रेल यातायात का त्याग नहीं करते, ये किसी वीर से कम तो नहीं। बात ऐसी हो गई है कि हाँ भई चलो, दुर्घटना होती है तो क्या, देश तो अपना है, मोदी जी अपने हैं, कुछ एक लोग मर भी जायें तो कौन सी आफत हो जाएगी। हर दुर्घटना के बाद पीड़ितों को कुछ मुआवज़ा मिलता है, कुछ एक मंत्री त्यागपत्र भी प्रेषित कर देते हैं पर कोई ऐसा माई का लाल पैदा नहीं हुआ जो इन दुर्घटनाओं को रोक दे। अब आपसे एक सवाल है, रेल दुर्घटनाएँ अपराध हैं या राजनीति? सोचिये।

मेरे पल्ले तो इतनी ही बात पड़ती है कि अगर किसी व्यक्ति ने रेल के डिब्बेे में घुसकर उतने ही लोगों को किसी हथियार से मार दिया होता तो हम सब उसको अपराध मानते। पुलिस केस इत्यादि झटपट शुरू हो जाते। दूरदर्शन पर ये देख कर कि हत्यारे को धर दबोचा गया है, हम चैन की साँस भी लेते। पर रेल दुर्घटनाओं में ऐसा कुछ नहीं होता क्योंकि वहाँ पर राजनीति इतराने लग जाती है। हमारी चुनी हुई सरकार और उस सरकार के चुने हुए अफसर यहाँ हमारे अपराधी हैं। इतना ही नहीं, पटरी की जांच करता लाइनमैन शायद हम जैसा ही कोई होगा जिस से कोई भूल हुई और कुछ अमंगल घटित हो गया। हमारी चुनी हुई सरकार को हमने देश के कल्याण हेतु कुछ अपराध करने की भी छूट दी हुई है।

इसको शायद डॉक्टर-रोगी रिश्ते के चश्मे से भी देखा जा सकता है। एक अच्छा डॉक्टर रोगी को चंगा देखना चाहता है और उसका इसी सोच के अनुसार उपचार करता है। पर ऐसे वैद्य अल्पसंख्यक ही होते हैं। हम सब रोगी हैं और हमारे देश की राजनीति दूसरे किस्म का वैद्य है जो चाहता है कि रोगी रोगी ही बना रहे ताकि वैद्य के घर का चूल्हा सूर्य की तरह निरंकुश जलता रहे। इस किस्म के वैद्य रोगी को स्वस्थ करने के वादे तो करते हैं पर असल में रोगी को बद से बदतर बनाते चले जाते हैं। ये वैद्य हमारे सरकारी कार्यालयों, दफ्तरों, मंत्रालयों में आपको मिल जायेंगे।

हमारी शिक्षा प्रणाली को ही ले लीजिए। जहाँ जहाँ सरकार ने पैर पसारे हैं, वहीं हमारे विद्यार्थियों का भविष्य क्षत-विक्षत हुआ है। देश में बहुत सारे सर्वे होते हैं, एक सर्वे ये भी किया जाये कि कितने नेताओं के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं। उधर उच्चतर शिक्षा के लिए बैंक से ऋण लेने के लिए एक गरीब विद्यार्थी को 11-12 प्रतिशत का ब्याज चुकाना पड़ता है। वहीं कार ऋण 9 से 10 के आसपास घूमता है और घर के लिए ऋण 8 से 9 के बीच मे रखा गया है। ये तो सिर्फ आंकड़े हैं पर पढ़ाई के लिए ऋण लेने में कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, ये विद्यार्थियों से पूछना चाहिए। अगर बिना पैरवी के आपको शिक्षा ऋण मिल जाता है तो आप खुद को एक दिन अमरीका के राष्ट्रपति के रूप में देख लें तो कोई आश्चर्य नहीं। राजनीतिज्ञ कौन है, ये तो मुझे नहीं पता पर इतना ज़रूर पता है कि ये पूरा राजनैतिक ढांचा हमारा अपराधी है और इसको कटघरे में खड़ा करना हमारा धर्म।

कुछ लोग कोशिश करते हैं पर चूँकि वे अल्पसंख्यक ही हैं, उनको डंडे से चुप करा दिया जाता है। इन सब अपराधों के बीच में अगर कोई कार्टूनिस्ट अपना विरोध अपनी कला के माध्यम से व्यक्त करता है तो सरकारी गलियारों में खलबली मच जाती है और उसे ‘पल में परलय होयगी, बहुरि करैगा कब’ के सिद्धांत पर अविलंब बंदी बना लिया जाता है। सवाल ये उठता है कि बंदी कौन होना चाहिए। कारागार में वो कार्टूनिस्ट होना चाहिए या वो नेता और अफसर जिन्होंने एलफिंस्टन पुल के ख़स्ता हालत पर सारी सूचनाओं और चेतावनियों को हवा में उड़ा दिया?

आप सोचें। मैं भी सोचता हूँ। कुछ समय बाद फिर मिलेंगे कुछ और विचार लेकर। लोकतंत्र को प्रणाम।

Image Credits – https://www.justpo.st/post/7181

Where’s my news?

How do you print a newspaper everyday – relentless reporting, wiring, proofing, editing, consulting, rewriting, printing ? No! Like everything else, there are newspaper hacks – Sell most of your pages for advertisements, write a couple of columns criticizing Modi’s choice of words, write an article praising Modi’s fashion statement, put a few churches under attack, arrange the ‘Letters to the Editor’ so as to put the ones that resonate with the Almighty Editor’s opinion on top, never try to go into details in the rest of the pages.
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