उलझते बंधन – Rakshabandhan Special

करीब १२-१३ बरस का था। नए पड़ोसी आये थे उस दिन। माँ ने मुझे उनकी मदद करने के लिए भेजा। एक ट्रक भर कर सामान था। काफी चीज़ें थीं। घर में उनके बस सिन्हा अंकल खुद, उनकी पत्नी और उनकी बेटी थी। आंटी और बेटी तो अंदर बैठ गए, सो मैंने और अंकल ने मिलकर सारा सामान उतारा और अंदर रखा। थालियाँ, चम्मच, मिक्सर ग्राइंडर – मुझसे तो यही उठ रहे थे। करीब तीन से चार घंटों में ये काम पूरा हुआ। अंकल ने अंदर आकर बैठने को कहा। यही सोचकर कि कुछ खाने पीने को मिलेगा, मैं अंदर बैठ गया।

अंकल ने आवाज़ लगाई – “बेटा स्वीटी, ज़रा रुआफज़ा पिलाओ आकाश को, काफी मेहनत की है लड़के ने।”

अंदर के कमरे से जी पापा की आवाज़ आई। बेटी को फरमाईश देकर अंकल नहाने को चल दिए। मैं मेहमानखाने में अकेला बैठा रहा। शरबत के इंतज़ार में शायद आँख लग गई। दो से चार कब बज गए पता ही नहीं चला। जिस सोफे ने अंदर आने में इतना थकाया था उसी ने थोड़ा सुकून भी दिया। शायद ये उसका शुक्रिया अदा करने का तरीका था। अब वो तो शरबत नहीं बना सकता। जब मैं उठा तो सामने की कुर्सी पर स्वीटी बैठी थी और टेबल पर रुआफज़ा।

रुआफज़ा की उम्र करीब डेढ़ घंटे हुई थी और स्वीटी मेरी हमउम्र लग रही थी। उसे सामने देख कर मैं झेप गया। इतनी सुन्दर लड़की शायद मैंने अपनी ज़िन्दगी में पहली बार देखी थी। शायद वो समझ गयी थी कि मैं बात नहीं कर पाऊंगा सो उसने ही कहा –

तुम तो सो गए थे, माँ ने बोला नहीं उठाने को। तुम कौन से स्कूल में पढ़ते हो? अभी तो मुझे भी एडमिशन लेना है।

उसकी हिंदी बिल्कुल फिल्म वाली हिंदी थी। मैं तो तब बिहार के शाही कलाम में बात करता था – हम जायेंगे, हम होमवर्क नहीं किये हैं…” इतनी मीठी बोली और ऐसी सुगठित हिंदी मैंने अपने उम्र के लोगों में कभी नहीं देखी थी। पता नहीं क्यों मैं थोड़ा सहम गया। कहते वक़्त ज़बान थोड़ी लड़खड़ाई। अपने स्कूल का नाम ऐसे ले रहा था जैसे जमना बाई के कोठे का नाम हो। एक बार एक दोस्त मंदिर मंदिर बताकर मुझे वहाँ ले गया था। मुझे तो कुछ समझ नहीं आया। जमना बाई ने कुछ खीर खिलाकर हमें चलता करना चाहा। मुझे तो खीर अच्छी लगी थी, सो खुश हो कर, उनको शुक्रिया अदा कर के जाने लगा था पर वो दोस्त वहाँ खीर खाने नहीं गया था। सो जमकर पिटाई हुई थी उसकी।

स्वीटी को मैंने अपने स्कूल का नाम बता दिया। उसने अपनी एक डायरी में लिख लिया। रुआफज़ा पीकर मैं घर को निकल गया। जाते वक़्त उसने ‘बाय’ कहा था – अंग्रेजी वाला बाय। मुझसे कुछ कहते नहीं बना था। किसी लड़की ने पहली बार बाय कहा था, मेरे पास कोई उत्तर तैयार नहीं था। सिलेबस से बाहर का सवाल था वो ‘बाय’।

घर पहुँचा तो माँ ने देर से आने की वजह पूछी। फिर मुझे याद आया कि मैं एक और बात भूल गया था। माँ ने कहा था कि उनको रात के खाने पर बुला रखना। उस दिन मुझे ये एहसास हुआ था कि दुनिया के हर सवाल के जवाब किताबों में नहीं मिलते। तजुर्बे से भी कुछ जवाब मिलते हैं। कोई लड़की जो मुझसे अब बाय कहे, मेरे पास तो जवाब तैयार था।

स्वीटी के यहाँ मैं फिर गया। ये कहने कि उन्हें रात का खाना हमारे यहाँ खाना है। दरवाज़े पर आंटी थीं। मैंने सोचा था कि स्वीटी आएगी तो उस बाय का जवाब दे दूंगा पर वो नहीं थी। आंटी को न्यौता देकर वापस आ गया। रात को स्वीटी और उसके माँ-पिताजी आये। मैं सारा वक़्त खाना ही परोसता रह गया। बड़ों ने बातचीत की। उनका खाना ख़त्म होने पर मैं अपनी थाली लेकर अपने कमरे में चला गया। करीब दो रोटियाँ खा लेने के बाद एक आवाज़ मेरे कानों में पड़ी – रोटी लोगे?‘ सर ऊपर किया, स्वीटी खड़ी थी – हाथ में थाली, उसमें दो रोटियाँ।

भूख तो मर चुकी थी पर स्वीटी को मना करते न बना। सो दो रोटियाँ और खा लीं। अंकल, पापा, माँ और आंटी – अभी बात कर रहे थे। पर मैंने देखा कि स्वीटी ऊब चुकी थी। मेरा मन तो कह रहा था कि किसी तरह से वो ये समझ ले कि मैं उसे अपनी कवितायें सुनाना चाहता था। एक दो बार इशारे भी किये, पर जब वो मेरी तरफ देखती तब इशारे की हिम्मत न होती। इतने में पापा ने कहा – अरे, आकाश बेटा, अंकल – आंटी को कुछ सुनाओगे नहीं ?”मुझे ये भी मंज़ूर था। ये सोच कर कि सबके बहाने स्वीटी भी सुन लेगी, मैं अपनी डायरी लेकर मेहमानखाने में आ गया।

मैं कवितायें तो सुना रहा था पर सुन सिर्फ स्वीटी रही थी। बाकी लोग बातें कर रहे थे। इस शोर में स्वीटी के साथ थोड़ी देर के लिए एक अपनापन सा हो गया। एक बार डायरी के पन्ने को देखता और फिर एक बार स्वीटी को। अपनी कविता की पंक्तियों को उसके चेहरे पर लहराते देखना कोई सपने जैसा था। शायद पहली बार किसी ने मुझे इतने गौर से सुना था।

शाम ख़त्म होने को आई और सिन्हा अंकल स्वीटी और आंटी को लेकर अपने घर चले गए। रात को सोते वक़्त मैं स्वीटी के बारे में सोचता रहा। उसके लिए मन में किस तरह के जज़्बात थे, कैसी भावनाएँ थीं, ये मुझे नहीं मालूम था।बस इतना याद है कि सब कुछ अच्छा लग रहा था। सुबह को उसको स्कूल में देखने के इंतज़ार में मैं सो गया।

उठा तो काफी दिन बीत गए थे। उसका दाखिला किसी और स्कूल में हुआ। शाम को बस बाहर खेलते वक़्त उससे मिलना हो पाता। उसके कई और दोस्त भी बन चुके थे। अब बातचीत ज़्यादा नहीं हो पाती थी। मैं भी क्लासवर्क – होमवर्क के जाल में खुशियाँ ढूंढने लगा। स्वीटी के बारे में ज़्यादा सोचने का वक़्त नहीं मिला। बस ये याद है कि पहले इम्तिहान के नतीजे आये थे तो आंटी ने मेरे नंबर पूछे थे। करीब पाँच प्रतिशत ज़्यादा मिले थे मुझे स्वीटी से। आंटी का चेहरा उतर गया था।

अगस्त का महीना था। रक्षाबंधन का दिन। मेरी कोई सगी बहन नहीं थी। सो माँ ही राखी बांधती थी हर साल। इस बार भी कुछ अलग होने के आसार नहीं थे। मैं नहाकर, पूजा कर के माँ का इंतज़ार कर रहा था। इतने में स्वीटी हाथ में एक थाली लेकर आ गयी। साथ में आंटी भी थीं। स्वीटी ने हरे रंग का लहंगा पहन रखा था और थाली में रोड़ी, चन्दन, लडडू के साथ एक राखी रखी थी। स्वीटी ने मुझे राखी बाँधी। मैंने उसे माँ के दिए १०१ रूपये दिए। ये सब ख़त्म हुआ और आंटी ने कहा – अब दोनों भाई-बहन साथ पढ़ाई लिखाई करेंगे।” मेरी माँ ने भी हँसते हुए हामी भर दी।

मैं खुश था। स्वीटी भी खुश थी। राखी से ज़्यादा शायद इसलिए खुश थे हम दोनों क्यूंकि हमें एक दूसरे का साथ पसंद था।

पापा ने सिखाया था कि रात को सोने से पहले हमें दिन भर के बारे सोचना चाहिए। दिन भर क्या अच्छा किया, क्या बुरा किया और कल कैसे और अच्छा कर सकते हैं – इस पर मनन करने को कहा था। ये हर रोज़ का एक नियम बन गया था मेरे लिए। राखी की रात को भी मैं सोच रहा था। सोचते सोचते बात स्वीटी पर आई। मैं ये सोच रहा था कि स्वीटी तो मेरी बहन नहीं थी पर उसने मुझे राखी क्यों बाँधी ? यही सोच कर सो गया कि शायद आंटी उसके कम नम्बरों से दुखी थीं और चाहती थीं कि हम किसी तरह से साथ पढ़ाई करें। मुझे राखी से कोई दिक्कत नहीं थी। स्वीटी के लिए मेरे मन में जो भावनाएँ थीं, उसका नाम मुझे आज भी नहीं मालूम है। पर ये सम्बन्ध नया था जिसके मायने मेरी उम्र से ज़्यादा बड़े थे तब।

हम साथ में पढ़ने लगे। उसकी गणित अच्छी थी, मेरी अंग्रेजी – सो जोड़ी अच्छी जम रही थी। लेकिन एक हफ्ता ही बीता था कि माँ ने मुझसे ये पूछ लिया कि इतना क्या पढ़ाता था मैं उसे। ग्रुप स्टडी को जल्दी ख़त्म करने का आदेश आया था। ये बात मेरी समझ से परे थी। मैंने माँ से कारण पूछा – तुम लोगों ने ही तो कहा था कि साथ में पढ़ाई करो, अब क्या हो गया?” माँ ने फटकारते हुए ज़्यादा सवाल न करने का हुक्म दिया – जो कहती हूँ वो सुनो। ज़्यादा ही साथ पढ़ रहे हो तुम दोनों, खुद की भी पढ़ाई करो। स्वीटी भी तेज़ है, खुद पढ़ लेगी।” अगले दिन स्वीटी पढ़ने नहीं आई। शायद उसके घर पर भी वही हुआ।

एक महीने बाद इम्तिहान हुए। मेरे नंबर स्वीटी से कम थे इस बार। घर में सारा दोष स्वीटी और मेरे साथ पढ़ने को दिया गया। माँ कुछ ज़्यादा कठोर थी। स्वीटी को काफी भला बुरा कहा। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। सोचता रहा। अब तक शायद भाई-बहन के रिश्ते के मायने कुछ कुछ समझ में आ रहे थे। तेरह साल के बच्चे के दिमाग की उथल पुथल शायद कोई नहीं समझता। सभी को लगता है कि गूंथा हुआ आटा होता है एक तेरह साल का लड़का – जैसे बेलना है – बेल लो। ये मैं खाते खाते सोच रहा था। गुस्से में रोटी थोड़ी आड़ी-टेढ़ी हो गई थी माँ की। उसी को देखकर ये ख्याल आ रहे थे। यही सब सोचते सोचते मैंने दिन का अखबार उठाया। पढ़ते पढ़ते एक कोने में एक खबर पर नज़र पड़ी जिसमें लिखा था कि एक पंद्रह साल के लड़के ने पड़ोस की लड़की का बलात्कार कर दिया। लड़की तेरह साल की थी। तब बलात्कार का मतलब मालूम नहीं था। समझता था कि बलात्कार का मतलब परेशान करना होता है।

तब मुझे यही लगा था कि मुझे मेरे सवाल का जवाब मिल गया। अगर स्वीटी को कोई कभी परेशान करता है तो मैं उसकी रक्षा करूँगा। अगर मोहल्ले के पंद्रह साल के लड़के स्वीटी को परेशान करते हैं तो मैं उनकी मरम्मत कर दूंगा।

इसके बाद काफी वक़्त निकल गया। मैं अब करीब बाइस बरस का हूँ। आज रक्षाबंधन है। स्वीटी के बारे में सोच रहा था। उसकी शादी जल्दी हो गई। जितने भी दिन मोहल्ले में रही, स्वीटी को कभी किसी ने परेशान नहीं किया। तब सोचता था कि क्यूंकि मैं उसका भाई हूँ, कोई उसे परेशान नहीं करता। पर अब हकीकत से सामना हो रहा है। मोहल्ले में कोई पंद्रह साल का लड़का नहीं था। बाकी सब बच्चे हम से छोटे थे। तो फिर स्वीटी ने राखी क्यों बाँधी? आज तो उस से बात भी नहीं होती। न ही वो कभी कोई राखी भेजती है।

भाई बहन का रिश्ता इतना कच्चा हो सकता है, ये बात मुझे धीरे धीरे मालूम हुई। अगले सात आठ सालों में जितने पड़ोसी आये, सबकी बेटियाँ मेरी बहन बन गयीं। ये एक रस्म सा हो गया। सभी राखियों का कोई न कोई मकसद था।

स्वीटी के लिए सबसे बड़ा खतरा मैं था। तेरह साल का पड़ोस का लड़का था मैं, जो एक साल में चौदह का होता… और दो साल में पंद्रह का हो जाता। वही पंद्रह साल का लड़का जिसने अपनी पड़ोस की लड़की को परेशान किया था। दरअसल, मैं स्वीटी को खुद से बचा रहा था। समाज ने मेरी कलाई पर उसकी राखी इसलिए बंधवाई थी ताकि वो मुझसे महफूज़ रहे।

-आकाश की डायरी से ।

Echoes that stay!

I broke a promise I made to myself, a promise I had kept for 9 long  years. I was not going to read another of Khaled Hosseini’s books after the heart-wrenching story of the Kite runner although I loved every bit of it.  I did duly skip A Thousand Splendid Suns and stayed true to the promise, until a friend, unaware of this promise of mine gifted me Hosseni’s latest bestseller And the Mountains Echoed. So I made my choice, picked the book to read during a bus journey in the night and here is how beautifully Hosseini opens the book for me.
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