Memory is a weird thing. It seems to make you forget the most important things of life and ensure that you remember the least significant of things that happened around you. I either completely forget the birthdays of friends I have known for a long time or embarrass myself by wishing them a month in advance. The craziest part is I clearly remember the birthdays of some long-lost acquaintances whose faces I can barely recollect. My mother had the habit of keeping things safely, only she forgets where she had kept them. She usually brings the entire house down every time she starts looking for something that she had kept safely.Did I mention that memories are weird? Well, they always take you on a detour and you almost forget what you wanted to say in the first place. I wasn’t planning to talk about my mother. In fact, I wanted to talk about one of my English teachers from school. Continue reading “Being Humane”
The Night of Harmony
पिलपिलाते हुए आम लोग।
ज़िन्दगी है, ज़िन्दगी में मुलाकातें भी होती रहतीं हैं। मुलाकातें होतीं हैं तो बातें भी चल पड़तीं हैं। हम हिन्दुस्तानी राय रखने में ऐसे भी बड़े आगे हैं। राजनीति, क्रिकेट, मज़हब, चलचित्र- आप बस मुद्दा उठाइये और चार पाँच विशेषज्ञ तो आपको राह चलते मिल जाएंगे। पान थूकते, तम्बाकू चुनाते, ताश खेलते विशेषज्ञ से शायद पाठक का भी पाला पड़ा ही होगा। तेंदुलकर को किस बॉल पर क्या मारना चाहिए, ये मेरे कॉलोनी के गार्ड से बेहतर शायद ब्रैडमैन को भी ना मालूम हो।
पर मैं यहाँ उनकी बात नहीं करूँगा। मैं बात करूँगा आम आदमी की – तथाकथित आम आदमी। मेरे मत से तो आम आदमी कोई नहीं होता। आदमी होते हैं, औरतें होतीं हैं। गरीब आदमी, अमीर आदमी। गरीब औरत, अमीर औरत। आम तो उस फल का नाम है जो गरीब आदमी की नसीब में नहीं लिखा होता। अच्छा छोड़िये इन बातों को, अभी के लिए आम आदमी ही कह लीजिये। तो बात कुछ यूँ हुई कि जहाँ कहीं भी गया आम लोगों के साथ ही रहा । आम आदमी जो अच्छे भी हैं, बुरे भी और फिर जो इन दोनों में से कुछ नहीं या फिर दोनों ही। इन सबने किसी ना किसी तरीके से कुछ ऐसा कहा है कि मैंने इनको याद रक्खा है। कुछेक आप भी पढ़ लें। कोई भी बात निर्णयात्मक नहीं है। मेरे ख्याल में ये बातें उन लोगों ने कहीं हैं जो अपने दिल से ईमानदार थे और इन्हें व्यवहार कुशलता की कोई चिंता नहीं थी। मानव सीमाओं से घिरा है, हम आप और सब। किसी की सीमाएँ नज़दीक तो किसी की काफी दूर। दार्शनिकों की बातें तो बहुत सुन लीं आपने, ज़रा ये भी सुनिए की तथाकथित आम आदमी क्या कहता है –
- घर पर अपने दूधवाले से – “और महतो जी, किसको वोट करेंगे इस बार?”
महतो जी – “और किसको देंगे सर, वही लालू जी।”
मैं – “पर वो तो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं।”
महतो जी – “हाँ मगर जात अपना है।”
- 2007 विश्व कप – सौरव गांगुली टीम में वापस आ चुके थे। कलकत्ता के एक बस स्टैंड पर एक अख़बार वाले से –
“क्या लगता है, कौन सी टीम जीतेगी?”
अखबारवाला – “दादा सौ मारेगा आर इंडिया हारेगा।”
मैं – “ऐसा क्यों?”
अखबारवाला – “एई होना चाहिए सर, गांगुली को टीम से बाहर कोरा था ई लोग, अभी सारा मैच हार जायेगा इंडिया पर अपना दादा सौ पर सौ मारेगा।”
- मुम्बई के एक लोकल ट्रेन में उस यात्री से जो मुझे मेरी जगह से उठाना चाहता था –
“क्या दिक्कत है?”
यात्री – “कहाँ से हो? मराठी क्यों नहीं बोलते ?
- नौकरी के पहले दिन मेरे रंग को ध्यान में रखते हुए एक टीम लीड का सवाल –
“क्या तुम तमिल नाडु से ही हो?”
- एक मित्र को चप्पल चोरी करने से रोकने पर –
“अरे यार, तू बहुत सीरियस बन्दा है। कॉलेज में चलता है इतना कुछ, मेरी भी तो किसी ने ले ली ना। अब मैं नंगे पैर घूमूं?”
- ट्रेन में सामने बैठे चचा जी –
चचा – “बेटे, तुम्हारा आई आई टी में नहीं हुआ?”
- एक मित्र जो कल शाम को बौद्धिक चर्चा में रामायण और महाभारत को स्त्री विरोधी और पुरुष प्रधान बता रहे थे, आज ऑफिस में –
“आपके पास अच्छी कार होगी तो लोगों को दिखाईएगा ना, बिपाशा के बड़े बुब्बे हैं तो क्यों नहीं दिखाएगी?”
कुछ देर बाद
“वो देखिये क्या गांड है, अरे देखिये तो सही, वो गयी।”
- एक रूममेट (पुरुष) बलात्कार का कुछ दोष स्त्रियों को देते हुए –
“तुम बोलो। कोई नंगी लड़की सामने खड़ी हो जायेगी, तुम उसके साथ कुछ नहीं करोगे?”
- एक मित्र (स्त्री) ये जानकार कि मैंने सम्भोग(सेक्स) नहीं किया –
“तो गर्लफ्रेंड क्या गार्डन घुमाने के लिए रक्खी थी?”
- एक और मित्र मुस्लिमों के बारे में अपनी बेबाक राय रखते हुए –
“पता है सर, जो उनकी हरक़त है, उनको काट देना ही एक समाधान है। नहीं तो आज न कल हमारे ऊपर चढ़ कर बैठ जायेंगे।”
हम आम लोग हैं। बहुत आम। इतने आम कि एक सड़ा हुआ आम हमसे ज़्यादा ख़ास होता है। आम लोग मज़ाकिया होते हैं, आम लोग सीरियस भी होते हैं। आम लोग ईमानदार होते हैं। आम लोग बेईमान भी होते हैं। सिर्फ आम होना कोई सर्टिफिकेट नहीं होता। हर आम आदमी ख़ास बनने की होड़ में लगा है। सारे पैंतरे ख़ास बनने के ही हैं। उन पैंतरों में हम वो सब करते हैं जो एक आम आदमी करता है या आम औरत करती है। क्यों न करें? जब तक ख़ास बन नहीं जाते तब तक तो आम ही हैं- सड़े हुए आम जिनको थोड़ा दबाते ही गूदा पिलपिला कर बाहर निकल आता है। हम पिलपिलाकर ही ख़ास बनेंगे।तो कोई आपके प्रदेश का न हो तो मार गिराइये, आपकी भाषा न बोले तो मार गिराइये, आपका मज़हब न माने तो मार गिराइये। बुब्बे मापिए, गांड झाँकिये, बलात्कार कीजिये और सदा पिलपिलाते रहिये। मेरी शुभकामनाएँ।
She had that effect on me…
I was put in charge of hospitality committee and while preparing, since filtered water was available only in the teacher’s common room, had to drink untreated water many a times. This had distorted the texture and pitch of my voice temporarily. I love my voice, both literally and idiomatically. So it was a major setback. The croaky voice was intelligible only to me. Two days after the event was over, I was going to my classroom via the library corridor. She was walking towards the library and I was walking towards her. She waved her hand and helloed. I mumbled something that I don’t remember now. She asked me if I had drunk raw water from the supply taps. I had a silly smile on my face while nodding affirmatively. She smiled. That was magic, a surreal encounter of charm and power of beauty.